किंकर्तव्यविमुड़......
यह एक शब्द था
किसी पुरानी कविता का
जो आजकल बार-बार
मन के सरोवर
को उद्वेलित कर जाता
क्या मैं
अपने किसी कर्म से
पीछा छुडा रही थी
या फिर सभी को
कभी न कभी
त्रस्त करती यही जिजीविषा !
किंकर्तव्यविमुढ़ता,जिजीविषा,जीवन,
जिज्ञासा, आज बस मन उलझा रहा !
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