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Thursday, March 1, 2012

औरत हो कर भी !

औरत हो कर भी
कविता लिखती हूँ
नहीं काफी बस
घर का हिसाब- किताब
या बच्चों का होमवर्क
मेरे शब्द बांचने को


सब्जी-वाले,रद्दी- वाले
पड़ोस की माताजी से
जब महंगाई की बातें
हो जाती हैं


तब अन्दर झांकती हूँ
और नोच लेती हूँ
शब्दों के नाखूनों से
आत्मा को चूसने वाली
विचारों की जोंको को

आँचल में ढके रहने वाले
मर्यादा के शरीर में बसी
आत्मा की परतें उधेड़  कर
सबके सामने रखने के लिए


माँ, बेटियों और बहुओं ने 
सदियों से जो
हिम्मत का बाँध बनाया है
खोलती हूँ उसके
बाढ़ वाले किवाड़ 


और बह जाती हूँ
रचना की लहरों में
औरत हो कर भी !











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