Pages

Pages

Thursday, March 15, 2012

उतरन

अक्सर उसकी साइकिल
हमारी स्कूल बस के
पीछे-पीछे दिखती
जैसे बस के पहिये में
उसे दिखता हो
भविष्य का कोई
रहस्मयी मानचित्र

उसकी लम्बी चोटियाँ
मुझे अच्छी लगती
और जब वो उँगलियों से
अपने कच्चे आँगन में
घंटों कढाई करती ,
मैं देखती उसे पहने हुए
मेरी पुरानी फ्राक


फिर जाने कब
उसका चेहरा गुम गया
मेरे बचपन के साथ
बस पुराने कपड़ों
की सलवटों में शायद
मिलती रही हमारी
कहानियाँ

कॉलेज की दहलीज़ से पहले ही
पार कर ली उसने
ब्याह की सीमा रेखा
"अमीर तो है पर बुड्ढा भी"
दो दिन अफवाह रही बस
फिर उसकी कहानी
बन गयी मानो
हमारे छोटे शहर की
लोककथा


आज मिले यहाँ
तो बस औपचारिकता ही थी
क्यूँ पूछा मैंने "तुम खुश हो?"


और उसने गिना दिए
अपने हीरे के हार,
बंगले और भी
न जाने क्या-क्या

जैसे एक -एक कर
वो मेरे मुंह पर मार रही हो
मेरी उतरन  के टुकड़े
और उतार रही हो
दो बचपनों का ऋण !!

No comments:

Post a Comment