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Monday, April 30, 2012

Ek Aawaz Ki F I R

कौन सा युद्ध था यह लगता
या कौन सी दुनिया
बदल देने वाली क्रांति
जो ले आये तुम
अपने सारे अंनत ज्ञान
के तोपखाने को
उड़ेलने इतनी भड़ास
की दब जाये उसमे
दूसरी हर आवाज़

क्या इतनी कमज़ोर है
तुम्हारे अपने सत्य
पर तुम्हारी पकड़
या फिर विसम्मत आवाज़
के कम्पन से ही
हिलने lagta है
तुम्हारे तथ्यों  का साम्राज्य

की तुम चढ़े  आते हो
लेकर पूरे लाव-लश्कर
कुचलने उस आवाज़ को
जो नहीं करती
तुम्हारा जय घोष

तुम्हारे दंभ के किले से
देश-विदेश के चर्चे करते
नहीं दिखते तुम्हे
अपने आंगन के घाव
जिनसे रिसते लावे से
रोज़ लिखी जाती
मेरी किस्मत

झूठे  तमगे हों
या फिर तुम्हारे
कटाक्ष के बाण
सस्ती धातु के
बेमोल  टुकड़ों से
कब तराशा गया है
इतिहास का हीरा

मैं कवि हूँ
बस कविता लिखती हूँ
और तुम कितने भी
मारो ज्ञान के भंडार
से तिरस्कार में
लपेट-लपेटकर
तर्क-वितर्क के पत्थर

मैं यहीं  हूँ
और जानती हूँ
इन्ही जख्मों से आएगी
मेरी आवाज़ में खराश
और इन्ही छालों से
बारूद बढ़ जायेगा
मेरे लफ़्ज़ों का

जलती आग में
रोटियां सेकने वाले
कब जाने
सदियों की जलन
लगती है
चिंगारी  को
सुलग कर
अंगार बनने में !









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