साल दो साल में
एक -आध बार होता
किताबों के सारे बक्से खुलते
चुनिन्दा साडीयाँ, चुनियाँ निकलती
एक-एक चीज़ को माँ घंटो
छूती रहती ,और पीछे बजता
एक पुराना गाना- मेरा दर्द तुम न समझ सके....
मैं झांकती दरवाज़े से तो
वो मुस्करा देती,पर नहीं छिपती
आँखों के कोनों की नमी
आज बरसों बाद
नहीं बिखरी मेरी किताबें
नहीं निकाले मैंने कोई चुनिन्दा कपड़े
छू के देखा ,आँखें भी नम नहीं मेरी
फिर भी मानो
मन ज़रा गीला सा लग रहा है
और जैसे कानों में वही गाना बज रहा है
मेरा दर्द तुम न समझ सके
आज शायद मदर्स डे है !
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